प्रिये मेरे कुछ बोल दूँ क्या ? पीछे मोड़ कर सोच रही थी.. कुछ किस्से बयां कर दूं क्या ? यादों के पन्ने खोल दूं क्या ? पर ना, अब क्या रखा है इन सब चीज़ों में, बेकार की ये तो बातें हैं, ये अल्फाज बस स्वरों के समूह हैं, ना इनके एहसास इनके साथ हैं, ना इसमें कोई संवेदना , फिर भी सोचती हूं , यादों को मैं निकल ही दूँ , खत्म कर दो उन बचीखुचे यादों को , क्यों जगह बना रखे हैं, एक बार निकल जाएं तो, जी हल्का हो जाए | तुम ही बोलो प्रिये मेरे कुछ बोल दूं क्या ? कुछ भड़ास तुम भी निकल देना , जी हल्का तुम भी कर लेना , इस रिश्तो का कुछ नाम देकर , उसे यूहीं ख़त्म कर देना |