बँध गये हैं किस डोर से हम?
धर्म और जात पात के बंधन से...
या अमीर ग़रीब के अंतर से...
या देश विदेश के परिवेश से....
या लोगों के बाहरी भेष से....
या फँस गये..
अराजकता के खंडहर में
स्वतंत्र तो हम हो गये...
बाहरी लोगों के अंकुश से....
पर आज भी हम बँधे हैं....
खुद के मानसिक क्लेश से...
हृदय के द्वेष से.....
66 साल की स्वतंत्रता....
या
इंसानियत की प्रतन्त्रता.....
क्यूँ भूल गये
इंसानियत का धर्म ....
बुराइयों से खुद को स्वतन्त्र करना ...
ही है हमारा उद्देश्य...
जिंदगी तो सभी जिते हैं....
गिरते..पड़ते...हंसते...रोते...
जीतकर बुराइयों से जिया तो
ही जीना सार्थक है.....
जीवन मूल्यों की शिक्षा मिली तो है
पर निभाई नहीं है....
कुछ अंदर छुप गया है
दुबक कर बैठ गया है...
इस आस में की कोई आएगा..
उसे जगाएगा.....
ज्वाला बुझ सा गया है....
किसी चिंगारी के इंतज़ार में...
फिर से उसे दहक़ाने को....
पर ना कोई आया है...ना कोई आएगा...
खुद ही उठना होगा...
खुद ही जागना होगा....
हिम्मत कर लड़ना होगा....
ज्वाला को फिर से दहकाना होगा....
और दूसरो को राह दिखाना होगा....
जीत जाएँगे हम
अगर विश्वास है.....
यही एक जिंदगी है...
जिसे बनाना खास है...
धर्म और जात पात के बंधन से...
या अमीर ग़रीब के अंतर से...
या देश विदेश के परिवेश से....
या लोगों के बाहरी भेष से....
या फँस गये..
अराजकता के खंडहर में
स्वतंत्र तो हम हो गये...
बाहरी लोगों के अंकुश से....
पर आज भी हम बँधे हैं....
खुद के मानसिक क्लेश से...
हृदय के द्वेष से.....
66 साल की स्वतंत्रता....
या
इंसानियत की प्रतन्त्रता.....
क्यूँ भूल गये
इंसानियत का धर्म ....
बुराइयों से खुद को स्वतन्त्र करना ...
ही है हमारा उद्देश्य...
जिंदगी तो सभी जिते हैं....
गिरते..पड़ते...हंसते...रोते...
जीतकर बुराइयों से जिया तो
ही जीना सार्थक है.....
जीवन मूल्यों की शिक्षा मिली तो है
पर निभाई नहीं है....
कुछ अंदर छुप गया है
दुबक कर बैठ गया है...
इस आस में की कोई आएगा..
उसे जगाएगा.....
ज्वाला बुझ सा गया है....
किसी चिंगारी के इंतज़ार में...
फिर से उसे दहक़ाने को....
पर ना कोई आया है...ना कोई आएगा...
खुद ही उठना होगा...
खुद ही जागना होगा....
हिम्मत कर लड़ना होगा....
ज्वाला को फिर से दहकाना होगा....
और दूसरो को राह दिखाना होगा....
जीत जाएँगे हम
अगर विश्वास है.....
यही एक जिंदगी है...
जिसे बनाना खास है...
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