आत्ममंथन
शून्य को निहारता वो चक्र है ,
उस तक पहुँचना ही फक्र है |
जिसे पहचान है उस वक़्त की ,
वही इस जहां का भक्त है |
कहाँ के लिए निकले कहाँ तक गए ,
वक़्त आते आते हम थक गए ,
सुना है वहीँ पहचान मिलती है हम सबको ,
सब यहीं की पहचान में सशक्त है |
क्यों दूर तक दौर कर हमें भागना है ,
पास ही हमारी आत्मा का सामना है |
उठो संभल लो और बढ़ चलो ,
तुम्हें और लोगों को संभालना है |
लब पे फंसी हुई हर आवाज़ को ,
उस आवाज़ से मिलाना है |
दौड़ना भागना न छिपाना है ,
हर इंसान को करना उसका सामना है |
आत्मा की धधकती पुकार को ,
सुन लो तो आज वक़्त तुम्हारा है|
चूक गए तो पता नहीं कब मिले ?
ये आत्मा ही तुम्हारा सामना है |
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